Sunday, April 22, 2012

तुम पुकार लो

तुम मुझे पुकार लेना |
सब भेद मिटा मैं लौट आँऊगी |
मैं शिला बन राह में खड़ी रहूँगी |
युगों तक धुप-ताप सहती रहूँगी |
तुम्हे जिस दिन भूल का अहसास हो |
मार्ग खोज मरुथल में |
तुम मुझे पुकार लेना |
मैं समय की धुल संग उडती रहूँगी |
आस लिए सदियों तक भटका करुँगी |
तुम्हे जिस दिन सत्य की पहचान हो |
बहार निकल हवाओं में
तुम मुझे पुकार लेना |
मैं मणिधारी रूप धरुँगी
धरा कोख में बैठी रहूँगी
जिस दिन तुमको अमृत की दरकार हो
धरती चीर अंधकार में
तुम मुझे पुकार लेना |
मैं पद निन्ह तेरे पूजा करुँगी |
रह में तेरी मैं बैठी रहूँगी |
जिस दिन लगे मुझ पर तेरा अधिकार हो |
हाथ बड़ा तनहाई में |
तुम मुझे पुकार लेना |
मैं मर कर भी भटका करुँगी |
नभ छतरी से तुझे देखा करुँगी |
जिस दिन तुम्हे प्रेम की पहचान हो |
बाहें फैलाए आकाश में |
तुम मुझे पुकार लेना |
सब भेद मिटा मैं लौट आऊँगी |

Thursday, March 8, 2012

रक्तिम आकाश

ओ आसमान की लालिमा
तुम किस नगरी ?
कल साँझ ढली जब
आज दिन निकला, दिनों ही पहलू रक्तिमा
ओ आसमान की लालिमा |
दिन बदले, युग बदला
कभी भोर की लाली जगाती
शंख स्वर सुना, जीवन चलाती
मुर्गे की बाँग, चिड़ियों के सुर
आज गुम हैं
बदल गए दृश्य, मुर्गे नहीं आते गलियारे में
आते हैं अक्सर टेबल पर - पक कर
चिड़ियाँ गुम हैं
शंख नहीं बजते भोर में
सब सोते हैं देर तलक !
साँझ की लाली, जब छाये आसमान में
नहीं दिखाई देती, छिप जाती है
ऊँचे मकानों के सयों में |
मगर
उससे भी पहले जग जाता है शहर
रोशनियों में, आवाजों में
बेतुके संगीत और
थियेटर-सिनेमा में, बार की मस्ती में
भड़कते कपड़ों में
अध ढंके जिस्मों में
एक नई ज़िन्दगी शुरू हो जाती है ओ लालिमा |
अब युग बदले,मानस बदला
जीवन का मतलब बदला
बूढ़े बैठे वृद्धाश्रम में
गिनते पल-पल जीवन का
रह देखते अपनों की या मृतु की ?
बच्चे पलते क्रेच में
फिर भी सब व्यस्त हैं
आप-धापी है जीवन में
भागा-दौड़ी और ऊहापोह
बैचेनी और भगदड़ है
अवसाद-वितृष्णा है
कहीं जीवन फाँसी का फंदा है
कहीं फंदा खुद अपनों का है
ओ आसमान की लालिमा
तुम किस नगरी ???

Monday, March 5, 2012

कह दो तुम कुछ ऐसा……


कह दो तुम कुछ ऐसा
कि जिसे सुनकर लगे – सुकून मिला है
बंजर धरती पर फूल खिला है
बहती नदिया को बाँध मिला है |
कह दो तुम कुछ ऐसा
कि जिसे सुनकर लगे – जीवन सवंरा है
पर्वत पर में एक फूल खिला है
बरसों ताप करके जीवन मिला है |
कह दो तुम कुछ ऐसा
कि जिसे सुनकर लगे – जीवन महका है
बुझते मन में दीप जला है
सुखी टहनी पर फूल खिला है
कह दो तुम कुछ ऐसा
कि जिसे सुनकर लगे – एक मीत मिला है
पतझड़ में पौधा पनपा है
समंदर से हिरा निकला है |
कह दो तुम कुछ ऐसा
कि लगे – प्रणय निवेदन किया है
मरुथल में बदल बरसा है
बिरहन को फिर योग मिला है |
कह दो तुम कुछ ऐसा
कि जिसे सुनकर लगे – मरहम लगा है
कह दो तुम कुछ ऐसा – कह दो – कह दो ना….. |

Sunday, February 12, 2012

ख्वाहिशें

ख्वाहिशें खाली दामन में सिमटती हैं
अकेले सपनो में सरगर्मी करती हैं
सिसकती हैं, परिणाम को तरसती हैं
ख्वाहिशें खाली दामन में सिमटी हैं |
सरकती हैं बाँधों के भीतर
अपरिभाषित संसार ढूँढती हैं |
अपरिमित आकाश के आँगन में
आकृति का आकर ढूँढती हैं |
संस्कृति का सर्वोत्तम सोपान को
सँजोने का स्वप्न उकेरती हैं
आगंतुक के आँगन में
प्रतीक्षारत द्वार खोलती हैं |
ख्वाहिशें खाली दामन में सिमटी हैं |