Thursday, March 8, 2012

रक्तिम आकाश

ओ आसमान की लालिमा
तुम किस नगरी ?
कल साँझ ढली जब
आज दिन निकला, दिनों ही पहलू रक्तिमा
ओ आसमान की लालिमा |
दिन बदले, युग बदला
कभी भोर की लाली जगाती
शंख स्वर सुना, जीवन चलाती
मुर्गे की बाँग, चिड़ियों के सुर
आज गुम हैं
बदल गए दृश्य, मुर्गे नहीं आते गलियारे में
आते हैं अक्सर टेबल पर - पक कर
चिड़ियाँ गुम हैं
शंख नहीं बजते भोर में
सब सोते हैं देर तलक !
साँझ की लाली, जब छाये आसमान में
नहीं दिखाई देती, छिप जाती है
ऊँचे मकानों के सयों में |
मगर
उससे भी पहले जग जाता है शहर
रोशनियों में, आवाजों में
बेतुके संगीत और
थियेटर-सिनेमा में, बार की मस्ती में
भड़कते कपड़ों में
अध ढंके जिस्मों में
एक नई ज़िन्दगी शुरू हो जाती है ओ लालिमा |
अब युग बदले,मानस बदला
जीवन का मतलब बदला
बूढ़े बैठे वृद्धाश्रम में
गिनते पल-पल जीवन का
रह देखते अपनों की या मृतु की ?
बच्चे पलते क्रेच में
फिर भी सब व्यस्त हैं
आप-धापी है जीवन में
भागा-दौड़ी और ऊहापोह
बैचेनी और भगदड़ है
अवसाद-वितृष्णा है
कहीं जीवन फाँसी का फंदा है
कहीं फंदा खुद अपनों का है
ओ आसमान की लालिमा
तुम किस नगरी ???

Monday, March 5, 2012

कह दो तुम कुछ ऐसा……


कह दो तुम कुछ ऐसा
कि जिसे सुनकर लगे – सुकून मिला है
बंजर धरती पर फूल खिला है
बहती नदिया को बाँध मिला है |
कह दो तुम कुछ ऐसा
कि जिसे सुनकर लगे – जीवन सवंरा है
पर्वत पर में एक फूल खिला है
बरसों ताप करके जीवन मिला है |
कह दो तुम कुछ ऐसा
कि जिसे सुनकर लगे – जीवन महका है
बुझते मन में दीप जला है
सुखी टहनी पर फूल खिला है
कह दो तुम कुछ ऐसा
कि जिसे सुनकर लगे – एक मीत मिला है
पतझड़ में पौधा पनपा है
समंदर से हिरा निकला है |
कह दो तुम कुछ ऐसा
कि लगे – प्रणय निवेदन किया है
मरुथल में बदल बरसा है
बिरहन को फिर योग मिला है |
कह दो तुम कुछ ऐसा
कि जिसे सुनकर लगे – मरहम लगा है
कह दो तुम कुछ ऐसा – कह दो – कह दो ना….. |