Saturday, October 29, 2011

जलियाँ वाला बाग

यह बगीचा
यहाँ लिखी है इबारत खून से
मासूम बेगुनाहों की
शहादत की गवाह हैं
आज भी – ये जर्जर दीवारें
इस बगीचे में
बच्चों की ऊँगली थामे
आकेले खडी हूँ – निर्विकार
उन आवाजों को सुन पाने में प्रसारत
जिन्हें न सुन पाना शांति सूचक हैं
सुनने से बदलेगा आज / बदलेगा कल
वे दर्दीली आहें
मौत से पहले मरती चीखें
मेले के जोश में मौत का शोर
कूआं लदफद लाशों से
थोड़े पानी में बहुत सा खून
बंदूकों से बरसती आग
ख़ामोशी में सुनी
जालिमों की आवाज़ – “भुन दो जिंदा सालों को”
ऊँगली के पोरों से कान किए बंद खडी हूँ
जिसे सुनना तड़पाता है
जिन पर गुजरी चीत्कारें
उनका दर्द कौन जाने?
हाथ जोड़ किया नमन
धरती पर बैठ किया श्राद्ध तर्पण
स्मारक के सामने चित्र खिंचवा
बड़े आकर में इसे बनवा
मित्रों – परिचितों को दूँगी
अमृतसर की निशानी
जहाँ जाना गर्वात है
दीवारों पर प्रेम सन्देश और घटिया बातें
हर कोई लिख आता हैं
मगर
बगीचे की देख-रेख और सफाई करने में
हर शक्स शर्माता है||
हर शक्स शर्माता है||

Tuesday, October 25, 2011

कुछ कह देते...


दो शब्द ही सही
कुछ कह देते |
श्रद्धा सुमन मैं समझ लेती
तुलसी दल सम ले लेती
मैं गंगाजल सा पी लेती
दो शब्द ही माही
कुछ कह देते ||
तुम निराकार भाव से खड़े रहे
सावन भादों ले आँखों में
मैं जलती, पल-पल मिटती रही
दो शब्द ही सही
कुछ कह देते ||
मुख फेरा तुमने निश्चय ही
कायर कह दूँ या बैरागी तुम
मैं मिटने से पहले अंतिम क्षण
भरपुर नज़रों से तकती थी
दो शब्द ही सही तुम लेकेन
कुछ कह देते….||