Sunday, April 17, 2011

बिखरा हुआ सामान


चारों तरफ अरमान है और मैं हूँ
बिखरा हुआ सामान है और मैं हूँ |
धुएं में डूबा हुआ असबाब का शहर
हर नज़र कातिल, हर शख्स बेखबर
बुझ रहे अहसास दुनिया की भीड़ में
निश्तर उठाए जान है और मैं हूँ
बिखरा हुआ सामान है और मैं हूँ |
हर नज़र मेहरबां तुझ पर मेरे
हुजूर
हर शख्स परेशां तेरा भी क्या
कुसूर
सादगी लपेटे तू गुज़रे जो
महफिलों से
इक तरफ ये शान है और मैं हूँ
बिखरा हुआ सामान है और मई हूँ
मिलता नहीं कहीं से इन्सान का
पता
मिल भी जाये इंसा, इंसानियत
लापता
क्यों देखकर भी हम कह नहीं
पाते
कातिल के ये नशान हैं और मैं हूँ
बिखरा हुआ सामान है और मैं हूँ